छत्तीसगढ़ में खैरागढ़ विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। 2018 के चुनाव में इस सीट से छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की टिकट पर विधायक चुने गए देवव्रत सिंह के असामयिक निधन की वजह से खाली हुई सीट पर उपचुनाव कराए जा रहे हैं। यह इत्तफ़ाक है कि 1995 में हुए खैरागढ़ विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव कराए गए थे। तब कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में देवव्रत सिंह ने ही पहली बार जीत हासिल की थी। इसके बाद उन्होंने कई बार खैरागढ़ से नुमांदगी की और लोकसभा के लिए भी चुने गए थे। खैरागढ़ में उपचुनाव अभियान अब चरम पर पहुंच रहा है। है। कांग्रेस ने श्रीमती यशोदा वर्मा को उम्मीदवार बनाया है। वहीं बीजेपी कि टिकट पर पूर्व विधायक कोमल जंघेल चुनाव मैदान में है। छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस से नरेन्द्र सोनी चुनाव मैदान में उतरे हैं।
जम्हूरियत में हरएक चुनाव की अपनी अहमियत होती है। खैरागढ़ उपचुनाव की भी अपनी अहमियत है। सीधे तौर पर कहें तो छत्तीसगढ़ में करीब डेढ़ साल बाद 2023 मे विधानसभा के आम चुनाव होंगे। खैरागढ़ का उपचुनाव के अपने मायने हैं। एक तो छत्तीसगढ़ में सरकार चला रही कांग्रेस पार्टी इस चुनाव के ज़रिए यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि प्रदेश की जनता उसकी नीतियों को सही मानती है और उसका समर्थन करती है। कांग्रेस ने 2018 के बाद से प्रदेश में हुए चित्रकूट, दंतेवाड़ा और फिर मरवाही के विधानसभा उपचुनावों में जीत हासिल करने के बाद भी इस तरह की दलील सामने रखी थी। अब एक बार फिर कांग्रेस के लिए इस दलील को साबित करने की चुनौती नज़र आ रही है।
जाहिर सी बात है कि कांग्रेस अगर इसे साबित करने में कामयाब रही तो करीब डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भूपेश है तो भरोसा है… जैसे नैरेटिव्ह को मज़बूती से आगे बढ़ाने में पार्टी को नई ताकत मिलेगी। इसी वजह से कांग्रेस ने खैरागढ़ उपचुनाव के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। उम्मीदवार के चयन से लेकर अपने मुद्दों को मतदाताओं के सामने रखने में पार्टी ने सुलझी हुई रणनीति का प्रदर्शन किया है। इसी सिलसिले में चुनाव जीतने पर खैरागढ़ को जिला बनाने का वादा भी अपने घोषणा पत्र में किया है। इसका कितना असर होगा… यह तो उपचुनाव के नतीज़े से ही सामने आ सकता है। लेकिन खैरागढ़ का यह चुनाव छत्तीसगढ़ के प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी के लिए भी कम अहमियत नहीं रखता।
छत्तीसगढ़ में लगातार पन्द्रह साल तक सरकार चलाने के बाद 2018 में सिर्फ़ पन्द्रह सीटों पर सिमटने को मजबूर बीजेपी पिछले काफी समय से अपनी ज़मीन तलाश रही है। पार्टी में लगातार इस सवाल को लेकर मंथन चल रहा है कि आखिर छत्तीसगढ़ में पार्टी की यह हालत क्यों हुई है…? हालांकि 2018 के बाद से बीजेपी छत्तीसगढ़ में कोई भी उपचुनाव नहीं जीत सकी है। लेकिन संगठन अपने तरीके से लगातार सक्रिय नज़र आता रहा है। पार्टी ने नए प्रयोग के रूप में अपना प्रदेश प्रभारी भी बदला है। जिनके हरएक दौरे के बाद इस बात को लेकर चर्चा होती है कि छत्तीसगढ़ में हुए इस बदलाव का क्या असर हो रहा है… और पार्टी आगे किस तरह का बदलाव करने जा रही है…? संगठन के भीतर चल रही इस कवायद की वजह से हो रहे बदलाव की झलक खैरागढ़ उपचुनाव के नतीजों से भी सामने आ सकेगी।
छत्तीसगढ़ में बीजेपी को चला रहे लोगों के सामने एक चुनौती यह भी है कि 2023 के चुनाव में उतरने से पहले उन्हें यह भी साबित करना है कि देश के बाकी हिस्सों में बीजेपी के पक्ष में जो समर्थन दिखाई देता है, वह छत्तीसगढ़ में भी है। हाल ही में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने जिस तरह कामयाबी हासिल की है, उसे छत्तीसगढ़ में भी प्रूफ़ करने के लिए खैरागढ़ उपचुनाव एक अच्छा मौका है। बीजेपी के लिए यह इस वजह से भी कठिन परीक्षा नज़र आ रही है, चूँकि एक तरफ उसे प्रदेश के आम लोगों के सामने अपना जनाधार साबित करना है, वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली में बैठे पार्टी के बड़े नेताओं के समने भी यह जाहिर करना है कि छत्तीसगढ़ में 2018 के चुनावों में मिली पराजय के सदमे से बीजेपी अब उतर चुकी है और इस रास्ते में अब तक किए गए प्रयोग कामायाब हुए हैं।
बीजेपी की इस रणनीति का असर चुनाव अभियान के दौरान भी देखा जा सकता है। कांग्रेस की ओर से नए जिले का वादा और तमाम विकास के मुद्दे सामने रखे जाने के बाद जवाब में बीजेपी ने आरोप पत्र पेश किया है। उपचुनाव में छत्तीसगढ़ बीजेपी की पूरी टीम तो लगी ही है। साथ ही पार्टी ने अपने केन्द्रीय मंत्रियों और बड़े नेताओं को भी प्रचार अभियान में शामिल किया है। अब खैरागढ़ उपचुनाव के नतीजों से ही इस बात का पता चल सकेगा कि बीजेपी पूरी ताकत झोंकने के बाद अपनी इस रणनीति में कामयाब हो पाती है… या नहीं… ?
कांग्रेस बीजेपी के सामने पेश आ रही चुनौतियों से अलग हटकर अगर छत्तीसगढ़ की सियासत और स्थानीय मुद्दों की बात करें तो यह ज़रूर देखा जा सकता है कि 2018 के चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने जिस तरह से किसानों के मुद्दों को आगे किया था, वही मुद्दा किसी न किसी रूप में आज भी चल रहा है। मसलन माना जाता है कि 2500 रुपए में धानखरीदी का वादा कांग्रेस के लिए सबसे अधिक फायदेमंद रहा। पिछले तीन साढ़े तीन साल में आम लोगों से जुड़ा सियासी मुद्दा इसके चारों तरफ़ ही घूमता दिखाई दे रहा है। उस पर सीएम भूपेश बघेल ने जिस तरह से छत्तीसगढ़िया कल्चर के हिमायती की पहचान बनाई है, उसकी चर्चा भी लोगों के बीच सुनाई देती रहती है। कांग्रेस की मौजूदा सरकार ने पहले राम वन गमन पथ को लेकर अपनी प्राथमिकता सामने रखी। इसके बाद गोबर खरीदी के जरिए गौसेवा का एक मॉडल पेश किया…।
और अब गांव-गाँव में होने वाले नवधा रामायण के कार्यक्रमों पर फ़ोकस किया जा रहा है। उससे छत्तीसगढ़ के आम लोगों के बीच जुड़ाव के साथ ही बीजेपी के कोर मुद्दों को हथियाने की रणनीति दिखाई देती है। इसकी काट के रूप में बीजेपी को भी अपनी रणनीतिक कौशल का प्रदर्शन करना पड़ेगा। स्वैरागढ़ उपचुनाव के नतीज़े से छत्तीसगढ़ विधानसभा के गणित में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। प्रदेश में कांग्रेस वैसे भी विधायकों की बड़ी संख्या के साथ सत्ता चला रही है। लेकिन इसके नतीजों का असर सियासी गणित पर ज़रूर पड़ सकता है। इस वजह से ही कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए इस चुनाव की अपनी अहमियत है….
